उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड के जालौन जनपद में एक ऐसा स्थान है जो दुनिया भर में अनूठा है। यहां स्थित ‘‘ पंचनदा” पर 5 नदियों का संगम होता है। यह भौगोलिक के साथ साथ धार्मिक और सांस्कृतिक द्दष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है।
जालौन जिले के उरई मुख्यालय से 65 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में तथा इटावा से 55 किलोमीटर दक्षिण पूर्व एवं औरैया से 45 किलोमीटर पश्चिम दक्षिण में स्थित प्राकृतिक सौन्दर्यता से परिपूर्ण अद्भुत स्थल है ‘‘ पंचनदा”। अनेक ऐतिहासिक पौराणिक मंदिरों का रमणीक स्थल है।
विभिन्न ग्रन्थों व पुराणों में पंचनदा स्थल का वर्णन है लेकिन दुर्गम वनों के बीच स्थित होने के कारण सुगमता के अभाव में यह स्थान वह प्रसिद्धि नहीं पा पाया जो इसे मिलनी चाहिए थी। यहां यमुना नदी में चंबल, सिंध, कुवांरी और पहूज नदियां अपना अस्तित्व विलीन कर यमुनामयी हो जाती हैं,
यह स्थान तीन जनपद जालौन ,इटावा और औरैया की भागौलिक सीमा भी बनाता है वही मध्य प्रदेश के भिंड जिले का थोड़ा सा भूभाग भी इस संगम का हिस्सेदार है। पंचपदा संगम स्थल पर बने मंदिर मैं आने जाने वाले लोगों ने बताया कि पंचनदा संगम के आग्नेय दिशा तट पर बना प्राचीन मठ वर्तमान में सिद्ध संत श्री मुकुंद वन बाबा की तपोस्थली के रूप में विख्यात है।
विभिन्न प्रमाणों के आधार पर मुकुंदवन वन संप्रदाय के नागा साधु थे, वह अपनी पीढ़ी के 19 वें महंत थे और वह पंचनदा मठ पर तपस्या करते थे। उनकी कीर्ति सुनकर राम चरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास विक्रम संवत 1660 अर्थात सन् 1603 में पंचनदा पर पधारे और दोनों संतो का मिलन हुआ। इसके बाद दोनों संत गुसाई जी के आग्रह पर जगम्मनपुर के राजा उदोतशाह के यहां जगम्मनपुर पहुंचे और वहां बनने जा रहे किले की आधारशिला रखी। इसके दोनों संतों ने राजा को भगवान शालिग्राम ,दाहिनावर्ती शंख , एक मुखी रुद्राक्ष भेंट किया जो आज भी जगम्मनपुर राजमहल में सुरक्षित एवं पूजित है।
पंचनदा का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं श्रीमद भागवत पुराण के पंचम स्कंध के अध्याय दो मे श्लोक क्रमांक 18 से 22 तक पंचनदा का व्याख्यान आया है जिसमें महिषासुर के पिता रम्भ तथा चाचा करम्भ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पंचनद पर आकर तपस्या की । करम्भ ने पंचनदा के पवित्र जल में बैठकर अनेक वर्ष तक तप किया तो रम्भ ने दूध वाले वृक्ष के नीचे पंचाग्नि का सेवन किया, इंद्र ने मगरमच्छ का रूप धारण कर तपस्यारत करम्भ का वध कर दिया। द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान पंचनदा के निवासियों ने दुर्योधन की सेना का पक्ष लिया था महाभारत पुराण में पंचनदा का उल्लेख है। महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद पांडू पुत्र नकुल ने पंचनदा क्षेत्र पर आक्रमण कर यहां के निवासियों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत वन पर्व में पंचनदा को तीर्थ क्षेत्र होने की मान्यता सिद्ध होती है। विष्णु पुराण में भी पंचनदा का विवरण मिलता है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गारोहण व द्वारका के समुद्र में डूब जाने के उपरान्त अर्जुन द्वारा द्वारका वासियों को पंचनदा क्षेत्र में बसाए जाने का उल्लेख है।
अन्य पुराणों एवं धर्म ग्रंथों से प्रमाणित होता है कि पंचनदा पर स्थित सिद्ध आश्रम एक दो हजार वर्ष पुराना नहीं अपितु वैदिक काल का तपोस्थल है । अथर्ववेद के रचयिता महर्षि अथर्ववन ने पंचनदा के तट पर अथर्ववेद की रचना की। महर्षि अथर्ववन वंश की पुत्री वाटिका के साथ भगवान व्यास जी का विवाह हुआ माना जाता है जिनसे भगवान शुकदेव जी की उत्पत्ति हुई। कुरु राजा धृष्टराष्ट्र व गंगापुत्र भीष्म की सहायता से श्री कृष्ण व्यास जी ने पंचनदा पर एक विराट यज्ञ एवं धर्म सभा का आयोजन किया था। महर्षि अथर्ववन के काल से ही पंचनदा स्थित आश्रम पर आज भी वन संप्रदाय के ऋषि निवास करते हैं।
पंचनदा संगम तट पर इटावा की सीमा में स्थित विराट मंदिर में प्राचीन शिव विग्रह है। शिव महापुराण के अनुसार भारत के 108 शिव विग्रहों में पंचनदा पर गिरीश्वर महादेव पूजित हैं। द्वापर में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया नाग को समुद्र जाने की आज्ञा देने पर गोकुल से समुद्र जाने के रास्ते में कालिया नाग द्वारा दीर्घकाल तक पंचनदा धाम पर रुककर भगवान शिव जी पूजा अर्चना की थी। इसी स्थान को गिरीश्वर महादेव फिर कालीश्वर और कालांतर में कालेश्वर के नाम से जाना जाने लगा। पंचनदा के कालेश्वर महादेव के मंदिर के आसपास आज भी सांप का जहर उतारने वाली वनस्पति बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है, जिसे सर्प पकड़ने वाले नाथ संप्रदाय के साधु पहिचान कर उखाड़ ले जाते हैं। पंचनदा का कालेश्वर मंदिर वर्तमान में ग्वालियर राज्य के महाराजा सिंधिया के वंशजों द्वारा संरक्षित है।